कोरोना वायरस: मौत और मातम के बीच काम करने वाले डॉक्टरों ने बताया अपना अनुभव
डॉ. मिलिंद बाल्दी उस वक़्त कोविड-19
वॉर्ड में ड्यूटी पर थे जब 46 साल के एक शख़्स को सांस लेने की समस्या के
साथ व्हील चेयर पर लाया गया.
वह व्यक्ति काफ़ी डरा हुआ था और लगातार एक ही सवाल पूछ रहा था, "क्या मैं ज़िंदा बच जाऊंगा?"
वो गुहार लगा रहे थे, "कृपया मुझे बचा लो, मैं मरना नहीं चाहता."
डॉ.
बाल्दी ने भरोसा दिया कि वो बचाने की हरसंभव कोशिश करेंगे. यह दोनों के
बीच आख़िरी बातचीत साबित हुई. मरीज़ को वेंटिलेटर पर रखा गया और दो दिन बाद
मौत हो गई.
इंदौर के अस्पाल में जब मरीज़ को लाया उसके बाद के
डरावने 30 मिनट को याद करते हुए डॉक्टर बाल्दी ने बताया, "वह मेरा हाथ
पकड़े रहा. आँखों में डर भी था और दर्द भी. मैं उस चेहरा कभी नहीं भूल
पाऊंगा."
उस मरीज़ की मौत ने डॉ. बाल्दी पर गहरा असर डाला है. उन्होंने बताया,
"उसने मेरी आत्मा को अंदर से हिला दिया और दिल में एक शून्य छोड़ गया."
बाल्दी
जैसे डॉक्टरों के लिए क्रिटिकल केयर वॉर्ड में मरीज़ों को मरते देखना कोई
नई बात नहीं है. लेकिन वो कहते हैं कि मनोवैज्ञानिक तौर पर कोविड-19 वॉर्ड
में काम करने की तुलना किसी से नहीं हो सकती.
अधिकांश कोरोनावायरस मरीज़ों को आइसोलेशन में रखा जाता है. इसका मतलब है
कि गंभीर रूप से बीमार होने पर अंतिम समय में उनके आसपास डॉक्टर और नर्स
ही मौजूद होते हैं.
दक्षिण भारत के इर्नाकुलम मेडिकल कॉलेज के
क्रिटिकल केयर विभाग के प्रमुख डॉ. ए. फ़ताहुद्दीन ने कहा, "कोई भी डॉक्टर
ऐसी स्थिति में रहना नहीं चाहेगा."
डॉक्टरों के मुताबिक़ भावनात्मक
बातों को वे मरीज़ के परिवार वालों के साथ शेयर किया करते हैं लेकिन
कोविड-19 उन्हें यह मौक़ा भी नहीं दे रहा है.
डॉ. ए. फ़ताहुद्दीन ने बताया कि अस्पताल में कोविड-19 से मरने वाले एक मरीज़ की आंखों के सूनेपन को वे कभी नहीं भूल पाएंगे. उन्होंने बताया, "वह बात नहीं कर पा रहा था, लेकिन उसकी आंखों में दर्द और डर साफ़ नज़र आ रहा था."
उस मरीज़ के अंतिम समय में उसके आसपास कोई अपना मौजूद नहीं था.
डॉ. फ़ताहुद्दीन इस बात को लेकर बेबस दिखे. लेकिन उन्हें एक उम्मीद दिखी-
मरीज़ की पत्नी को भी कोरोना वायरस के इलाज के लिए इसी अस्पताल में लाया
गया था.
डॉ. फताहुद्दीन उन्हें पति के वॉर्ड में लेकर आए. वहां उसने
पति को गुडबाइ कहा. उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि 40 साल चली उनकी शादी का
अंत अचानक इस तरह होगा.
अनुभवी डॉक्टर होने के बाद भी फताहुद्दीन ने
बताया कि इस घटना उन्हें बेहद भावुक कर दिया. हालांकि उन्हें इस बात का
संतोष भी है कि मरीज़ की मौत अपनी पत्नी को देखने के बाद हुई.
उन्होंने बताया, "लेकिन ऐसा हमेशा नहीं होता. कड़वा सच यही है कि कुछ मरीज़ों की मौत अपने परिजनों को गुडबाइ कहे बिना हो रही है."
डॉक्टरों पर भी इन सबका भावनात्मक असर होता है. ज्यादातर डॉक्टर अपने
परिवार से दूर आइसोलेशन में रह रहे हैं लिहाजा परिवार की ओर से मिलने वाला
भावनात्मक सहारा भी उन्हें नहीं मिल पाता है.
इसके असर के बारे में
श्रीनगर के गर्वनमेंट चेस्ट हॉस्पीटल के डॉक्टर मीर शाहनवाज़ ने बताया, "हम
लोगों को केवल बीमारी से ही नहीं लड़ना पड़ रहा है. हम नहीं जानते हैं कि
अपने परिवार से कब मिल पाएंगे, हर पल संक्रमित होने का ख़तरा अलग है. ऐसी
स्थिति में समझ में आता है कि हमलोग किस बड़े ख़तरे का सामना कर रह हैं."
इतना ही नहीं, इन तनावों के अलावा डॉक्टरों को मरीज़ों के भावनात्मक ग़ुस्से को झेलना पड़ता है.
डॉ.
शाहनवाज़ ने बताया, "मरीज़ काफ़ी डरे होते हैं, हमें उन्हें शांत रखना
होता है. हमें डॉक्टर के साथ-साथ उनके दोस्त की भूमिका भी निभानी होती है."
इसके
अलावा डॉक्टरों को मरीज़ों के परिवार वालों को फ़ोन कॉल करने होते हैं और
उनके डर और चिंताओं को भी सुनना होता है. डॉ. शाहनवाज़ के मुताबिक़ यह सब
भावनात्मक रूप से काफ़ी थकाने वाला होता है.
उन्होंने कहा, "जब आप
रात में अपने कमरे में पहुंचते हैं तो यह बातें आपको परेशान करती हैं.
अनिश्चितता को लेकर डर भी होता है क्योंकि हमें नहीं मालूम कि हालात कितने
ख़राब होंगे."
शाहनवाज़ साथ में यह भी बताते हैं, "डॉक्टरों का काम दूसरों का जीवन
बचाना होता है. हमलोग यह करते रहेंगे चाहे जो हो. लेकिन सच्चाई यह भी है कि
हम लोग भी इंसान हैं, इसलिए हमें भी डर लगता है."
उन्होंने बताया कि
उनके अस्पताल में कोरोना वायरस से हुई पहली मौत ने उनके साथियों के हिम्मत
को तोड़ दिया था क्योंकि तब उन्हें पता चला था कि कोविड-19 मरीज़ को अपने
परिजनों की अंतिम झलक देखने का मौक़ा भी नहीं देता है.
शाहनवाज़ ने
बताया, "परिवार वाले मरीज़ के अंतिम पलों को याद रखना चाहते हैं, शिथिल
पड़ती मुस्कान, कुछ अंतिम शब्द और भी कुछ जिसे सहेजा जा सके. लेकिन
उन्होंने मृतक का ठीक से अंतिम संस्कार करने का मौक़ा नहीं मिलता."
डॉ.
फ़ताहुद्दीन के मुताबिक़ ऐसे मनोवैज्ञानिक दबावों को समझे जाने की ज़रूरत
है और इसलिए प्रत्येक अस्पताल में मरीज़ों के साथ-साथ डॉक्टरों के लिए भी
एक मनोचिकित्सक को रखने की ज़रूरत है.
उन्होंने बताया, "मैंने अपने
अस्पताल में ऐसा किया है. यह ज़रूरी है, नहीं तो भावनात्मक घाव इतने गहरे
हो जाएंगे कि उन्हें भरना मुश्किल हो जाएगा. फ्रंटलाइन वर्करों में पोस्ट
ट्रूमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर दिखाई देने लगे हैं."